लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से
कभी चिनाब का मर्म लाल देख
लालगढ को हाशिये मे सना देख
हर सपने वहा अजीब तस्कर होते है
पडो के पत्ते अपने आप गरीब होते है
चूल्हो का सफ़ेद धुआ बेरंगा है
बागपन अपने आप लशकर मे रंगा है
उगता हुआ सूरज लहुलहान है ||
बेहोश चादनी को जगाते लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से.......
पत्थर, बेखबर गोली हर आगोश मे विलीन है
हर शख्स की नजरे अनीत बारुद मे तल्लीन है
कटी लाशो पर कौओ का पहरा आम नही खास है
वादियो का हर हिस्सा नुक्त्ताचीनी के आस पास है
विकास शर्माता है मोद प्रमोद इतिहास के शब्द है
फ़ुल गुलदान से झड रहे अंतरिक्ष कफ़न मे लब्ध है
गरीब की पैदाईश वहा मलीन है ||
ये चला सुनाते हुए लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से............
सपना अनमोल भी है जरुरते पूरी क्यो नही रही
लोकतन्त्र की ताली संसद मे क्यु बज रही
आखिर वो कौशल बन्दूक से निकल जाये कहा
अन्धीयारे मे सोये वो दीपक हक से जले कहा
तितलिया उडती है परो का साया जमी मे बिछता है
खादी खाकी से हर शक्स वहा जलता है
कतरा कतरा खून देखकर ||
पीठ पर बोझ डाल लिए लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से...........
दुर्गेश सोनी'
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