मै अपने अन्तस्थ
रुपाकारो से
ह्रदय का पावन
अभिषेक कर रहा हु
मथ रहा हु
भीतर ही भीतर
अपने द्वन्द्वो को बुनकर
बना रहा हु जाल
खगो के लिए
उपद्रवियो के लिए...
मेरा निमित्त
अथाह हिलोरे खा रहा
बिछोह स्फ़ुरण को
वह बढना चाह रहा
पथिक कि भॉति
पर! जाने क्यु पॉव गढ गये
रुक गये थम गये है ...
मै बैचेनी से
भर जाता हु निविडता से
उपद्रवियो द्वारा
मुझे आनन फ़ानन मे
काफ़िले से मिटाना चाहते है
वजुद को मिटाना चाहते है...
आखिर
ये पीडा,दर्द,रव
सोच की शान्ति मे
डुब जाते है
निशंक
एक मनुज के अंहकार मे
दब जाते है......
दुर्गेश 'सोनी'
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