मै

"जीवन के हर विषम संघर्ष मे अगर परिणाम देखोगे तो तुम्हारा कल तुम्हारी सोच से उतना ही दुर हो जाएगा..जितना ओस की बुन्दो का ठहरावपन"..
दुर्गेश 'सोनी'

Tuesday 28 June 2011

जन्नत

जन्नत की नादानी पे
एक महलसार यु रो पडा

आंगन मे चौबारा था
फ़िर कब्र क्यो जाना पडा
शुचिता के इस महल मे
मैने हर कसम की फ़रयाद दी
फ़िर क्यु इन जुगनुओ को
अंधेरे मे चमकना पडा...
'सोनी'

Friday 24 June 2011

नसीब


मेरी शहादत को कुर्बानी का नाम यु आंसमा मे न जोडना
वरना मेरी जमी की मीट्टी की मेरी कब्र को नसीब न होगी
गर जला भी दो सुनसान रातो मे दियो की लौ मेरी बगावत पर
तो कुछ दिनो उन्हे तह भी देना...
बेशक़ अपनी जमी पे ना हु 
चिरागो मे तेरे शिकवे को आलम मे न बदल जाउ तो कह देना ||
          दुर्गेश 'सोनी' 

Monday 20 June 2011


तरक्की को दीवाली के दीये मे जलाकर यु भुल गया हु 
जैसे फ़ाग के आलम मे मैने अफ़साना लिख दिया हो
अब इन बन्द कमरो मे रंगीन यादो का जमाया नही है
अकेलेपन मे अक्सर यही बाते मुझे रुलाया करती है.....
                                                       दुर्गेश  'सोनी'

Saturday 18 June 2011

"किसान"

                                                           "किसान"
विभा हो गई है,चलो आज खेतो मे फ़िर से बीज दू,पहले से नसो मे खुन थोडा कम है,लेकिन तुम्हारी चिन्ता मुझे अभी से है...पसीना थोडा आया है गनीमत है बीजो को अभी आसमान मै बन्द कर दिया है,लो अंकुर ने धरा को चिर लिया,प्यास लगी है पानी के लिए बुला रहा है,मावस की काली रात मै अंधेरे कुंए मै झाखता हु,चलो बच्चो को पानी मिल जाएगा.... मेरा खाना कल से अभी भी धरा को चुमे है... मास बीत गया,बीज अपने यौवन मे है शायद जेठ की नजरे लगी है...समय इक लम्बी रेस है फ़िर नही रुका, बीजो का छोटापन जवानी से होते हुए तुम तक पहुचने वाला है,मे अभी खाने की सोचता हु चलो बाद मे खाता हु... विपुला से अनाज अपने कदमो को छोड चुका है,मैने सोना एक जमीदार को दे दिया है,उसने बदले मै खुन का पानी दिया है... प्यास लगी है इस  पानी को पी लेता हु.. मेरा खाना चिटियो के नसीब मै था वो खा चुकी है,मुझे अब कोइ चिन्ता नही मैने इनका ओर तुम्हारा पेट भर दिया है,मै अब घर जा रहा हु माँ पत्नि बच्चे सब सो चुके है,मै वही लेट गया,सुबह का इन्तजार है ,विभा होनी है मुझे बीज वापस बौना है तुम तक पहुचाना है.....
                      दुर्गेश 'सोनी'
किसान

कागज

स्वर्णधरा पे लिपटा हुआ कागज
इक एतराज से रुठा है
पास मै नीली दवात
मौन वाचाल के भ्रम मै फ़सी है
फ़िर हिसाबी से उस रुठेपम को मनाता हु
लेकिन अक्सर मेरा वो स्वंवर याद आ जाता है
जिसमे इस कागज को हमेशा "खुदा हाफ़िज" कहा जाता है
                               दुर्गेश 'सोनी
'

Monday 13 June 2011

इन्तजार

अकेली ओट मै छुपकर यु देखना बन्द कर
आहट को सुनकर यु आइने पे जाना बन्द कर
देखकर इस ख्याल को
"वो वासव का रंग मेरा ही तो है"
हाथो को तेरी हंसी से यु लगाना बन्द कर
समय का भ्रम है जो पाया तुने
अवसरो की महानता
नदीयो का रुखापन
सुरज का तेज
ये सब झिलमिलाते आशिक है
मेरे कहने को यु नजर अन्दाज मत कर...
टुटा हुआ दिल फ़िर से जुड जाएगा
वो उस हसी के साथ वापस आएगा
सपनो मै ये सोचना बन्द कर

 दुर्गेश 'सोनी'

Sunday 12 June 2011

?


जाति से दो बन्दिशो की आत्मा छुटी
सरहदो पे दो हाथो की लकीरे छुटी
मत पुछ  इस चमन मै क्या क्या छुटा
भूख से एक औरत की मर्यादा छुटी......
                   'सोनी'

Wednesday 8 June 2011

सही है


एक दिन कब्रिस्तान के समीप हो जा रहा था
वही बैठा था कातरता युक्त भूत
मै डरा
वह बोला अब मत डरो
किसी को दुख न दूगा अब ।
मै था प्रजातन्त्र का ठेकेदार
जिन्दा था जब मीलो की जमी हथियायी मैने
खुब गमन किया पैसा
वो पैसा वही रह गया
आज स्वं को कब्रिस्तान मै नही ढाल पा रहा हु
दो गज भूमि भी अब मेरे पास नही है
अब तो मै यु ही भटकता रह्ता हु
कभी पीपल मै बरगदो मै
कभी किसी कुए मै........
       दुर्गेश  'सोनी'