मै

"जीवन के हर विषम संघर्ष मे अगर परिणाम देखोगे तो तुम्हारा कल तुम्हारी सोच से उतना ही दुर हो जाएगा..जितना ओस की बुन्दो का ठहरावपन"..
दुर्गेश 'सोनी'

Monday 31 October 2011

1

अक्ल की अल्फ़ सोच मुन्न्वर को बेपाक पैदा करती है/
तिमिर,ये फ़रिश्तो कि नोक नही जो किस्मत से चलती है


--दुर्गेश सोनी

Saturday 22 October 2011

रिश्ते

रिश्ते
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मशगुल इस जमाने मे तलफ़गार ऑसु बना देते है
इक बिना सीकी रोटी मे हजारो अहसान सुना देते है....

कि बहुत समझा है अपनो को खुशियो मे दुआ मिले
इस फ़रियाद मे वे अपनी नई चादर गिना देते है....

बमुश्किल कहा गये वो कंघन जो मॉ ने बटवारे मे दिए थे
इस गरीबी मे ये चहरे,रिश्तो की असलियत गिना देते है....

कि जिन्दगी के तल्ख कांरवा मे अब बेबस यु रहे
ये मुसाफ़िर को अकेले दिन की कमियॉ सिखा देते है....

----दुर्गेश सोनी'

Thursday 20 October 2011

मुहब्ब्त

मुहब्ब्त
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छोटी सी मुहब्ब्त हर हया मे गुनाह छिपाए रखती है
एक अनजान को खामोशी से बेजुबान बनाए रखती है...

रस्तो के दरमिया आकाश का बहना एक बहाना है
ये अपने आप को मुफ़लिसो मे दिवान सा बनाए रखती है....

कि अंधेरा अपने फ़क्र पर है जुगनू समन्दर सा डोल रहे
मै खो जाउना इस इनायत मे अपने को सवेरा बनाए रखती है....

खुदा नवाजिस गुलाब जर्रे सा ये दिल महकता रहता है
ये इश्क के मौसम मे हर उम्र को बगिया बनाए रखती है...

--दुर्गेश

Saturday 15 October 2011

पत्थर

ये रियासत बहुत पुरानी है/
पत्थर की ठोकर इश्क़ निशानी है..

खन्जर चलते नही यहा रो जाते है
कत्ल के गुनाह मे कुछ खो जाते है..

शाम सवेरे उलझन का जाल मुहब्ब्त मे
इस गुनाह मे हर रात जुगनु फ़स जाते है..

खुदा हमको यु बरकत से ना नवाजे
इस मस्जिद के हर नमाजी हस जाते है..

चन्द खतो को हम महकशी समझने लगे
ये गुलामी का इतिहास है शब कुछ कह जाते है..



---दुर्गेश

Wednesday 10 August 2011

फ़र्क

जिन्दगी तो बेरहम ये है...यहॉ अमीरी ओर गरीबी का ताल्लुक नही..
जहॉ दिखे है वीरान मे चूल्हे ओर दानो की फ़सल..वहा अलसुबह गगनचुम्बी मीनारो की नदिया बहा दो
यहॉ ताल्लुक है !
मीनारो की फ़र्श का दबी फ़सलो से
जो हर समय किनारो से एक दुजे को सच ओर झुठ के गर्व से देखते है .......
(युग परिवर्तन अभी दुर है)

Friday 5 August 2011

लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से


लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से
 कभी चिनाब का मर्म लाल देख
 लालगढ को हाशिये मे सना देख
 हर सपने वहा अजीब तस्कर होते है
 पडो के पत्ते अपने आप गरीब होते है
 चूल्हो का सफ़ेद धुआ बेरंगा है
 बागपन अपने आप लशकर मे रंगा है
 उगता हुआ सूरज लहुलहान है ||
बेहोश चादनी को जगाते लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से.......

 पत्थर, बेखबर गोली हर आगोश मे विलीन है
 हर शख्स की नजरे अनीत बारुद मे तल्लीन है
 कटी लाशो पर कौओ का पहरा आम नही खास है
 वादियो का हर हिस्सा नुक्त्ताचीनी के आस पास है
 विकास शर्माता है मोद प्रमोद इतिहास के शब्द है
 फ़ुल गुलदान से झड रहे अंतरिक्ष कफ़न मे लब्ध है
 गरीब की पैदाईश वहा मलीन है ||
 ये चला सुनाते हुए लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से............

 सपना अनमोल भी है जरुरते पूरी क्यो नही रही
 लोकतन्त्र की ताली संसद मे क्यु बज रही
 आखिर वो कौशल बन्दूक से निकल जाये कहा
 अन्धीयारे मे सोये वो दीपक हक से जले कहा
 तितलिया उडती है परो का साया जमी मे बिछता है
 खादी खाकी से हर शक्स वहा जलता है
 कतरा कतरा खून देखकर ||
पीठ पर बोझ डाल लिए लौट आया वो पक्षी अपने अधकटे पंखो से...........
दुर्गेश  सोनी'

Thursday 4 August 2011

पीडा


मै अपने अन्तस्थ
रुपाकारो से
ह्रदय का पावन
अभिषेक कर रहा हु
मथ रहा हु
भीतर ही भीतर
अपने द्वन्द्वो को बुनकर
बना रहा हु जाल
खगो के लिए
उपद्रवियो के लिए...
मेरा निमित्त
अथाह हिलोरे खा रहा
बिछोह स्फ़ुरण को
वह बढना चाह रहा
पथिक कि भॉति
पर! जाने क्यु पॉव गढ गये
रुक गये थम गये है ...
मै बैचेनी से
भर जाता हु निविडता से
उपद्रवियो द्वारा
मुझे आनन फ़ानन मे
काफ़िले से मिटाना चाहते है
वजुद को मिटाना चाहते है...
आखिर 
ये पीडा,दर्द,रव
सोच की शान्ति मे
डुब जाते है
निशंक 
एक मनुज के अंहकार मे
दब जाते है......
दुर्गेश 'सोनी'

Wednesday 20 July 2011

तलाश

उलझनो को अक्सर यु देखता हु सफ़ेद पन्नो की चादर मे
सुलझ गई तो हर महल पर इक आइना मेरा भी होगा
वरना हवेलीयो का द्वार फ़िर एक सफ़ेदी की तलाश मे होगा...
"सोनी"

Sunday 17 July 2011

विरह

"बारिश ने अनन्त रण को छुआ...इतराती परछाइ रुठी हुई है.. माटी के चीर ने काले चादर की ओढ मे खुशियो के सपने को इस तरह से बुना कि...  इतिहास काले चादर से निकलकर हरियाली की ओट मे ईद सा छुप गया..भीगा अरमान अकिंचन के द्वार से मावस की काली रात मे स्वेद संग, नग्न बचपन की तरह अद्रश्य भाव मे सो गया...मै इस व्याप्त क्षण मे हर जिज्ञासा हर प्रेरणा को ज्ञात रस  की तरह जीता हु" ||
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 "सिचता हु धरा को
 तो कोइ अरमान पलता है
 हर मौसम 
 मेरा अपना सहता है
 मै व्योम नही हु
 जो अक्ष से भागता हु
 मेरा सपना 
 पुस की रात 
 भी बिकता है"
 दुर्गेश 'सोनी'

Saturday 16 July 2011

ज़िन्दगी


ज़िन्दगी
कब तक
इन फ़ुलो को
अर्थविहीन समय मे
इक पल के लिए जन्म देती रहेगी
गुस्ताकी
तेरी सांसो की हवा ने
आखिर
निश्चिन्त पल मे सुला ही दिया...
ना देखा ना सुना ना कहा
बस क्षणभ्रम को पाकर
हर स्पर्श को सहा..
गर्भ का आंचल
कुछ कांटे भी देता है
विरह का हाथ
कुछ सुकुन भी देता है....
मै अबला की
आकांक्षाओ मे हु
जो समय
कुछ खोने भी नही देता
पर आडम्बर
कुछ कहने भी नही देता..
हा
सावन ने जगाया है मुझे
मेरे अपने गोद मे है
पतझड तु वापस कब जाएगा...
माना !
आकाश तेरा है
कुछ पानी भी गिराता है
हर चुभन भी छुआता है
पर मै मौन
अधुरे स्वप्न से
सर नही उठा सकता.....
दुर्गेश 'सोनी'

Thursday 14 July 2011

शब

शब,नज्म,बेबसी,तन्हाई किन किन ने पाला है मुझे 'इश्क़'
फ़िर क्यु 'वो' मौजुदगी हर समय हमे अवारा कह जाती है
खुशिया,तमन्ना,जहॉ,दिल ये कुछ है जो रखता हु उनके लिए 
'खता' वो उनकी नुमाइन्दगी मे इनको खिलौना कह जाती है |
दुर्गेश'सोनी'

Wednesday 13 July 2011

यादें

अब कहानी मे किस्सा उन "मैले आंचलो" का ना रहा
इन भरोसो पे जो गन्दी वफ़ाओ ने अपना हक़ जमाया है
कभी कल्पना मे "मातादीन" के साथ "चांद" मेरा अपना था
अब हर कलम तुझे तेरी सौतन से कुछ नया कहलवाती है ||
"स्वर्णकार"

Tuesday 12 July 2011

गरीबी

मै कल था
आज भी हु
अगले सवेरे शायद रहू
गरीबी की वेदना
इन्ही जज्बातो मे रोया करती है
कल कुछ नही खाया
आज का पता नही
अगला भोर
आक्रोशित भाव से
मेरी गडी आंखो मे
चिर निद्रा लाने को बैचेन है
मेरी ज़िज्ञासा
इन्हे सोचकर ही डुबा करती है
मेरा कुटुम्ब
मेरी कलीयो पर निर्भर करता है
कल मैने एक को बेचा
आज भी जा रहा हु
कल के
व्यव्सायी इन्तजार मे है..
यही सब होकर
मेरी कहानी
इस अकेलेपन के
सस्ते बाजार मे
खामोश रास्तो की तरह

खत्म हो जाया करती है......
दुर्गेश सोनी

खुशी

‎"इश्क" ने वन मे
"विरह" को यु याद किया
पत्तो को ज्यु तोडकर 

कानन को "रौरव" किया
इश्क ने "उछाह" से

प्रेमवन को ज्यु याद किया
विरह जले हर सपने को बगिया से "गंधराज" किया ।।
"सोनी"

Saturday 9 July 2011

प्रीतम

कोइ रह इश्क़ मे किनारा बन जाता है
कोइ संग कुमकुम के अफ़साना हो जाता है
कोइ भीगी सी पलके
मौन किनारो पर इक कंकर पे रुक जाती है
कोइ हरे-भरे आंगन मे
संग प्रीतम हंसी-ठीठोली कर जाता है
ये दो गीत हर सदी सम-विषम रह जाते है
कोइ संग निवालो को इक दुजे मे दे जाता है
कोइ सुनी रातो मे
भर आंसु का प्याला पी जाता है
'सोनी'

सजा

अदब से यु दरियादिली की उसने सजा सुनाई
संग खाए उन नीवालो की प्यारी मुहब्ब्त गिनाई
अफ़सोस ये नही--
कि तेरे बचपन ने मुझे कितना अपनाया था 
गनीमत वो रेशमी रुमाल तुमने अभी तक मांगा नही......
"सोनी"

Thursday 7 July 2011

लिप्सा

वो यादे बेशर्म है
जो मन मे दिखती है
उसके कल्पित चहरे को
आड्म्बर मे जीने को सहती है
लिप्सा धुमिल है
आनंद का भोर
सुर्योदय से पहले
नग्न रात्रि को आया है
बैचेन चेहरा
उसकी हर एक सांत्वना मे
वासाना की बु देखता है
खुद्दार ये मस्तिष्क
क्यो विचलित करता है
जो प्राण
पतित को आश्रित है.....
'सोनी'

तहजीब

तहजीब अगर गुर सिखा सकती है
तो दिल की दामिनी पर एक किरण भी होगी
मत भुलो की वो दिवाना शक्स भी अजनबी था
जिसने खतो पे नाम तुमसे पुछ के लिखा था
'सोनी'

अरमान

बिक गये वो खिलौने भी जो मेने ईद को लिए थे
इन बदस्तुरो को भी झोपडी का आलम रास न आया
'सोनी'

आसमान

शहर यु ही अजनबी नही होते
गर कतारो मे खडे लोग अपनी जमी पे होते
आसमान कि सैर का जज्बा तो एक परिन्दा ही जानेगा
इन बेचारो को अक्सर उडाया ही जाता है
"सोनी"

पत्ते

जीवन का मतलब इक औरत ने यु बतलाया
कभी फ़ुलो से बनी थी
फ़ुलो को कही ओर ले जाया गया
उस आंगन को खुशबु से महकाया गया
दो चार जो पत्ते झड गये थे
गुथा गया मरोडा गया सुखा गया
अजब संघर्षो का ये विराम कभी न रुका
अन्त मे उस माली के हाथ कही ओर "बेचा" गया
दुर्गेश 'सोनी
'

साखी

चलो आज फ़ितरत से साखी को कुछ पिलाया जाए
तेरे गम-ए-साख को हर सितम मे बदला जाए
बहुत देखा है समन्दर के आगोश मे तेरी उलझनो को 
चलो इन जवाबो को किसी ओर पे फ़ना किया जाए
'सोनी'

ठीकाने

नजरे अगर आपस मे मिल जाए
तो क्यु न ये गुनाह भी हो जाए
तु अपने ठीकाने को फ़रिश्ता-ए-गुल मे रख
मेरा जनाजा तेरी बक्शीस को आता ही होगा..
'सोनी'

तकदीर

खुशियो के शहर मे एक खबर
अंजाने की भी है
हर लब्जो के बयाने गुर की ये कहानी भी है
दिखती खुशिया जो ली है मैने तेरे फ़नकार से
उनमे महरबानी कुछ मेरी तकदीर की भी है ।।
'सोनी
'

Tuesday 28 June 2011

जन्नत

जन्नत की नादानी पे
एक महलसार यु रो पडा

आंगन मे चौबारा था
फ़िर कब्र क्यो जाना पडा
शुचिता के इस महल मे
मैने हर कसम की फ़रयाद दी
फ़िर क्यु इन जुगनुओ को
अंधेरे मे चमकना पडा...
'सोनी'

Friday 24 June 2011

नसीब


मेरी शहादत को कुर्बानी का नाम यु आंसमा मे न जोडना
वरना मेरी जमी की मीट्टी की मेरी कब्र को नसीब न होगी
गर जला भी दो सुनसान रातो मे दियो की लौ मेरी बगावत पर
तो कुछ दिनो उन्हे तह भी देना...
बेशक़ अपनी जमी पे ना हु 
चिरागो मे तेरे शिकवे को आलम मे न बदल जाउ तो कह देना ||
          दुर्गेश 'सोनी' 

Monday 20 June 2011


तरक्की को दीवाली के दीये मे जलाकर यु भुल गया हु 
जैसे फ़ाग के आलम मे मैने अफ़साना लिख दिया हो
अब इन बन्द कमरो मे रंगीन यादो का जमाया नही है
अकेलेपन मे अक्सर यही बाते मुझे रुलाया करती है.....
                                                       दुर्गेश  'सोनी'

Saturday 18 June 2011

"किसान"

                                                           "किसान"
विभा हो गई है,चलो आज खेतो मे फ़िर से बीज दू,पहले से नसो मे खुन थोडा कम है,लेकिन तुम्हारी चिन्ता मुझे अभी से है...पसीना थोडा आया है गनीमत है बीजो को अभी आसमान मै बन्द कर दिया है,लो अंकुर ने धरा को चिर लिया,प्यास लगी है पानी के लिए बुला रहा है,मावस की काली रात मै अंधेरे कुंए मै झाखता हु,चलो बच्चो को पानी मिल जाएगा.... मेरा खाना कल से अभी भी धरा को चुमे है... मास बीत गया,बीज अपने यौवन मे है शायद जेठ की नजरे लगी है...समय इक लम्बी रेस है फ़िर नही रुका, बीजो का छोटापन जवानी से होते हुए तुम तक पहुचने वाला है,मे अभी खाने की सोचता हु चलो बाद मे खाता हु... विपुला से अनाज अपने कदमो को छोड चुका है,मैने सोना एक जमीदार को दे दिया है,उसने बदले मै खुन का पानी दिया है... प्यास लगी है इस  पानी को पी लेता हु.. मेरा खाना चिटियो के नसीब मै था वो खा चुकी है,मुझे अब कोइ चिन्ता नही मैने इनका ओर तुम्हारा पेट भर दिया है,मै अब घर जा रहा हु माँ पत्नि बच्चे सब सो चुके है,मै वही लेट गया,सुबह का इन्तजार है ,विभा होनी है मुझे बीज वापस बौना है तुम तक पहुचाना है.....
                      दुर्गेश 'सोनी'
किसान

कागज

स्वर्णधरा पे लिपटा हुआ कागज
इक एतराज से रुठा है
पास मै नीली दवात
मौन वाचाल के भ्रम मै फ़सी है
फ़िर हिसाबी से उस रुठेपम को मनाता हु
लेकिन अक्सर मेरा वो स्वंवर याद आ जाता है
जिसमे इस कागज को हमेशा "खुदा हाफ़िज" कहा जाता है
                               दुर्गेश 'सोनी
'

Monday 13 June 2011

इन्तजार

अकेली ओट मै छुपकर यु देखना बन्द कर
आहट को सुनकर यु आइने पे जाना बन्द कर
देखकर इस ख्याल को
"वो वासव का रंग मेरा ही तो है"
हाथो को तेरी हंसी से यु लगाना बन्द कर
समय का भ्रम है जो पाया तुने
अवसरो की महानता
नदीयो का रुखापन
सुरज का तेज
ये सब झिलमिलाते आशिक है
मेरे कहने को यु नजर अन्दाज मत कर...
टुटा हुआ दिल फ़िर से जुड जाएगा
वो उस हसी के साथ वापस आएगा
सपनो मै ये सोचना बन्द कर

 दुर्गेश 'सोनी'

Sunday 12 June 2011

?


जाति से दो बन्दिशो की आत्मा छुटी
सरहदो पे दो हाथो की लकीरे छुटी
मत पुछ  इस चमन मै क्या क्या छुटा
भूख से एक औरत की मर्यादा छुटी......
                   'सोनी'

Wednesday 8 June 2011

सही है


एक दिन कब्रिस्तान के समीप हो जा रहा था
वही बैठा था कातरता युक्त भूत
मै डरा
वह बोला अब मत डरो
किसी को दुख न दूगा अब ।
मै था प्रजातन्त्र का ठेकेदार
जिन्दा था जब मीलो की जमी हथियायी मैने
खुब गमन किया पैसा
वो पैसा वही रह गया
आज स्वं को कब्रिस्तान मै नही ढाल पा रहा हु
दो गज भूमि भी अब मेरे पास नही है
अब तो मै यु ही भटकता रह्ता हु
कभी पीपल मै बरगदो मै
कभी किसी कुए मै........
       दुर्गेश  'सोनी'

Saturday 28 May 2011

क्या पाया ?



महसुस किया तो पाया
किताबो मे मुडा वो पन्ना क्या इशारा करता था
आज़ कि खुशी का पुर्व मै वाचन करता था
तभी
आज के गमगीन सलीखो मे मै
पता चला
शायद उन दिनो की रातो से मै डरता था
महनत कश ज़िन्दगी का वो एक मोड था
जिसे नहर समझ मैने उस रास्ते से मोड दिया
तरक्की पैदाइश तो दो दिनो कि मोहताज थी
प्रतिष्ठा अपने आइने मै सरताज थी
फ़िर
क्यु ज़िक्र किया उन भिगते फ़सानो का
ज़िनमे समझाइश का कोई मोल नही
क्या विचार करु आज के हालातो पे मै
दुर पुरब का सुरज भी मेरे घर मे डुब जाता
उन पंछियो का बसेरा भी उजड जाता है
बेशक
गलतीयो का पुलिन्दा था मै
बक्शीश तो दे
ज़िन्दगी तो लहरो का साज है
मै जानता हु वो मेरे कल का आज है ।।
                   दुर्गेश 'सोनी'



Friday 27 May 2011

जी हा

प्रेम की कोमल हवा मे नासूर पतझड की रवानी है
बिना कत्ले आम उन गुनहगारो की कहानी है
                                      'सोनी'
मोहताज उस जमी के हम कुछ यु हो गये
नक्शा बंद लोगो से गुनहगर हो गये
शिखर का अन्त मेरे कन्धो मै था
उस ना गवारी ने
मेरे हुनर को मोड दिया
तब से
गरीबी के उन सिक्को ने खनकना छोड दिया ।।

                              दुर्गेश'सोनी'

गुमशुदा

पिघल तो नही पाता-
पर अफसोस
एक आख मिचौली ने
ये रजनी कि शिला जो तोडी थी ।
वो जमाना तो गुजर गया
लहराते हाथो कि मासुमियत जिसने छोडी थी ।
अब तो उस पंक से पकंज ने भी जीना छोड दिया
मुस्कुराते हाथो के कंघन को भी तोड दीया
और ये पथ
मीठे बहानो से इसने मुझे लीया है
विद्रुम होठो ने कुछ तो किया है
गनीमत है
उस चुभते कांटे ने मेरा साथ दिया
शायद
रेत के प्रतिबिम्बो का शुक्रिया है ?
                    दुर्गेश  'सोनी'

Saturday 21 May 2011

शहर

मै न कहता था
मेरे चमन मै वो दाग भी है
शहर-ए-बस्ती का वो ख्वाब भी है
सोचा था मैने
मेरा शहर भी शहरेपनाह होगा
आबाद, गुलिस्ता, मजहब
प्यार, सोच, नुमाइन्दगी का मेल होगा ।।
समझ के समझ को समझा
बेमेल के इस श्मशान मे
मै ना तु है, तु ना मै हु
मन बेमन है
सम असम है
आकाश का जाल है
मरुधरा का जन्जाल है...
फ़िजाओ की रंगीनीयत मै
हर तरफ़ हैवानियत का नजारा था
हर शक्स की नजरो पर
बिख्ररा वो पैसा गवारा था
एकाएक
उस विचार को दिल के दरपन मै देखा
जब मैने तन्हाइयो मै कहा था
मै अकेला हु मै अकेला था....

दुर्गेश "सोनी"