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"जीवन के हर विषम संघर्ष मे अगर परिणाम देखोगे तो तुम्हारा कल तुम्हारी सोच से उतना ही दुर हो जाएगा..जितना ओस की बुन्दो का ठहरावपन"..
दुर्गेश 'सोनी'

Saturday 18 June 2011

"किसान"

                                                           "किसान"
विभा हो गई है,चलो आज खेतो मे फ़िर से बीज दू,पहले से नसो मे खुन थोडा कम है,लेकिन तुम्हारी चिन्ता मुझे अभी से है...पसीना थोडा आया है गनीमत है बीजो को अभी आसमान मै बन्द कर दिया है,लो अंकुर ने धरा को चिर लिया,प्यास लगी है पानी के लिए बुला रहा है,मावस की काली रात मै अंधेरे कुंए मै झाखता हु,चलो बच्चो को पानी मिल जाएगा.... मेरा खाना कल से अभी भी धरा को चुमे है... मास बीत गया,बीज अपने यौवन मे है शायद जेठ की नजरे लगी है...समय इक लम्बी रेस है फ़िर नही रुका, बीजो का छोटापन जवानी से होते हुए तुम तक पहुचने वाला है,मे अभी खाने की सोचता हु चलो बाद मे खाता हु... विपुला से अनाज अपने कदमो को छोड चुका है,मैने सोना एक जमीदार को दे दिया है,उसने बदले मै खुन का पानी दिया है... प्यास लगी है इस  पानी को पी लेता हु.. मेरा खाना चिटियो के नसीब मै था वो खा चुकी है,मुझे अब कोइ चिन्ता नही मैने इनका ओर तुम्हारा पेट भर दिया है,मै अब घर जा रहा हु माँ पत्नि बच्चे सब सो चुके है,मै वही लेट गया,सुबह का इन्तजार है ,विभा होनी है मुझे बीज वापस बौना है तुम तक पहुचाना है.....
                      दुर्गेश 'सोनी'
किसान

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