"बारिश ने अनन्त रण को छुआ...इतराती परछाइ रुठी हुई है.. माटी के चीर ने काले चादर की ओढ मे खुशियो के सपने को इस तरह से बुना कि... इतिहास काले चादर से निकलकर हरियाली की ओट मे ईद सा छुप गया..भीगा अरमान अकिंचन के द्वार से मावस की काली रात मे स्वेद संग, नग्न बचपन की तरह अद्रश्य भाव मे सो गया...मै इस व्याप्त क्षण मे हर जिज्ञासा हर प्रेरणा को ज्ञात रस की तरह जीता हु" ||
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
"सिचता हु धरा को
तो कोइ अरमान पलता है
हर मौसम
मेरा अपना सहता है
मै व्योम नही हु
जो अक्ष से भागता हु
मेरा सपना
पुस की रात
भी बिकता है"
दुर्गेश 'सोनी'
No comments:
Post a Comment